ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा
ज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हा
क़ाफ़िला साथ और सफ़र तन्हा
सोच रहा हूँ मर ही जाऊ आज…
शायद कब्र पर ही कोई गुलाब ले आये…!
तुम न आए तो क्या सहर न हुई
हाँ मगर चैन से बसर न हुई
मेरा नाला सुना ज़माने ने
एक तुम हो जिसे ख़बर न हुई
पीनस* में गुज़रते हैं जो कूचे से वो मेरे
कंधा भी कहारों को बदलते नहीं देते
*पालकी
मिर्ज़ा ग़ालिब