शेर के पर्दे में मैंने, ग़म सुनाया है बहुत
मर्सिये ने दिल को मेरे भी, रुलाया है बहुत
बेसबब आता नहीं, अब दम-ब-दम ‘आशिक़ को गश
दर्द खींचा है निहायत, रंज उठाया है बहुत
वादी-ओ-कोहसर में रोता हूँ, धाढें मार-मार
दिलबरान-ए-शहर ने, मुझ को सताया है बहुत
वा नहीं होता किसू से, दिल गिरिफ़्ता इश्क़ का
ज़ाहिरन ग़मगीं उसे रहना, ख़ुश आया है बहुत
मीर, गुमगश्त: का मिलना, इत्तिफ़ाक़ी अम्र है
जब कभू पाया है, ख़्वाहिशमंद पाया है बहुत
-मीर तक़ी मीर