उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा, इस बीमारि-ए-दिल ने, आख़िर काम तमाम किया
‘अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया
हर्फ़ नहीं जां-बख़्शी में उस की, ख़ूबी अपनी क़िस्मत की
हम से जो पहले कह भेजा, सो मरने का पैग़ाम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर, ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया
सारे रिन्द, औबाश, जहाँ के, तुझसे सुजूद में रहते हैं
बाँके, टेढ़े, तिरछे, तीखे, सब का तुझको इमाम किया
सरज़द हम से बेअदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए, पर सिज्द: हर हर गाम किया
किसका का’ब:, कैसा क़िब्ल:, कौन हरम है, क्या अहराम
कूचे के, उसके, बाशिन्दों ने, सबको यहीं से सलाम किया
शेख़ जो है मसजिद में नंगा, रात को था मैख़ाने में
जुब्ब:, ख़िरक़:, कुरता, टोपी, मस्ती में इन`आम किया
काश अब बुर्क़: मुंह से उठा दे, वरन: फिर क्या हासिल है
आँख मुंदे पर उन ने गो, दीदार को अपने `आम किया
याँ के सपेद-ओ-सियह में हमको, दख़्ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को जूँ तूँ शाम किया
सुबह, चमन में उस को कहीं, तकलीफ़-ए हवा ले आई थी
रुख़ से गुल को मोल लिया, क़ामत से सर्व ग़ुलाम किया
साइद-ए-सीमीं दोनों उसके, हाथ में लाकर छोड़ दिए
भूले उसके क़ौल-ओ-क़सम, पर हाय ख़याल-ए-ख़ाम किया
काम हुए हैं, सारे ज़ाय’अ, हर सा`अत की समाजत से
इस्तिग़ना की चौगुनी उनने, जूँ जूँ मैं इब्राम किया
ऐसे आहू-ए-रम ख़ुर्द: की, वहशत खोनी मुश्किल थी
सिह्र किया, एजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझको राम किया
मीर के दीन-ओ-मज़हब को, अब पूछते क्या हो, उनने तो
क़श्क़: खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया
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मेहँदी हसन साहब की आवाज में सुने ये ग़ज़ल