Wo kabhi dhoop kabhi chhanv lage

वो कभी धूप कभी छाँव लगे ।
मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे ।

किसी पीपल के तले जा बैठे 
अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।

एक रोटी के त’अक्कुब में चला हूँ इतना 
की मेरा पाँव किसी और ही का पाँव लगे । 

रोटि-रोज़ी की तलब जिसको कुचल देती है
उसकी ललकार भी एक सहमी हुई म्याँव लगे ।

जैसे देहात में लू लगती है चरवाहों को
बम्बई में यूँ ही तारों की हँसी छाँव लगे ।

Kaifi azmi

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