Bashar ke roop mein ek dilruba talism bane

बशर के रूप में एक दिलरूबा तलिस्म बनें
शफफ धूप मिलाए तो उसका ज़िस्म बने॥

वो मगदाद की हद तक पहुँच गया ‘कतील’
रूप कोई भी लिखूँ उसी का ज़िस्म लगे॥

वो शक्स कि मैं जिसे मुहब्बत नहीं करता
हँसता है मुझे देख कर नफरत नहीं करता॥

पकड़ा ही गया हूँ तो मुझे तार से खेंचो
सच्चा हूँ मगर अपनी इबादत नहीं करता॥

क्यु बक्श दिया मुझ से गुनेहगार को मौला
किसी से भी रियात नहीं करता॥

घर वालो को मफलत पर सभी कोस रहे है
चोरो को मगर कोई बरामद नहीं करता॥

भूला नहीं मैं आज भी आदाब-ए-जवानी
मैं आज भी लोगों को नसीहत नहीं करता॥

इंसान ये समझे की यहाँ गफ्म-खुदा है
मैं ऐसे ही मज़रो की जियादत नहीं करता॥

दुनिया में कभी उस सा मुदवित नहीं कोई
जो ज़ुल्म तो सहता है बगावत नहीं करता॥

Qateel shifai

Gham ke sehrao mein

गम के सहराओ में घंघोर घटा सा भी था
वो दिलावर जो कई रोज़ का प्यासा भी था॥

ज़िन्दगी उसने ख़रीदी न उसूलो के एवज़
क्योकि वो शक्स मुहम्मद का निवासा भी था॥

अपने ज़ख्मो का हमें बक्श रहा था वो सवाब
उसकी हर आह का अन्दाज़ दुआ-सा भी था॥

सिर्फ तीरो ही कि आती हुई बौछार न थी
उसको हासील गम-ए-ज़ारा का दिलासा भी था॥

जब गया वो बन के सवाली वो हुसूर-ए-यज़दा
सरे अकदस के लिए हाथ में प्यासा भी था॥

उसने बोए दिल-ए-हर-ज़र्रा में अज़मत के गुलाब
रेगज़ार उसके लहू से चमन आसा भी था॥

मैं तही रस्त न था हश्र के मैदान में ‘क़तील’
चन्द अश्को का मेरे पास इफासा भी था॥

Qateel shifai

Sari basti mein ye jadoo nazar aaye mujhko

सारी बस्ती में ये जादू नज़र आए मुझको
जो दरीचा भी खुले तू नज़र आए मुझको॥ 

सदियों का रस जगा मेरी रातों में आ गया
मैं एक हसीन शक्स की बातों में आ गया॥

जब तस्सवुर मेरा चुपके से तुझे छू आए
देर तक अपने बदन से तेरी खुशबू आए॥

गुस्ताख हवाओं की शिकायत न किया कर
उड़ जाए दुपट्टा तो खनक कर॥

रुम पूछो और में न बताउ ऐसे तो हालात नहीं
एक ज़रा सा दिल टूटा है और तो कोई बात नहीं॥

रात के सन्नाटे में हमने क्या-क्या धोके खाए है
अपना ही जब दिल धड़का तो हम समझे वो आए है

Qateel shifai

Ahsaas

मैं कोई शे’र न भूले से कहूँगा तुझ पर 
फ़ायदा क्या जो मुकम्मल तेरी तहसीन न हो 
कैसे अल्फ़ाज़ के साँचे में ढलेगा ये जमाल 
सोचता हूँ के तेरे हुस्न की तोहीन न हो 

हर मुसव्विर ने तेरा नक़्श बनाया लेकिन 
कोई भी नक़्श तेरा अक्से-बदन बन न सका 
लब-ओ-रुख़्सार में क्या क्या न हसीं रंग भरे 
पर बनाए हुए फूलों से चमन बन न सका

हर सनम साज़ ने मर-मर से तराशा तुझको
पर ये पिघली हुई रफ़्तार कहाँ से लाता
तेरे पैरों में तो पाज़ेब पहना दी लेकिन 
तेरी पाज़ेब की झनकार कहाँ से लाता

शाइरों ने तुझे तमसील में लाना चाहा 
एक भी शे’र न मोज़ूँ तेरी तस्वीर बना
तेरी जैसी कोई शै हो तो कोई बात बने
ज़ुल्फ़ का ज़िक्र भी अल्फ़ाज़ की ज़ंजीर बना 

तुझको को कोई परे-परवाज़ नहीं छू सकता
किसी तख़्यील में ये जान कहाँ से आए
एक हलकी सी झलक तेरी मुक़य्यद करले 
कोई भी फ़न हो ये इमकान कहाँ से आए 

तेर शायाँ कोईपेरायाए-इज़हार नहीं 
सिर्फ़ वजदान में इक रंग सा भर सकती है 
मैंने सोचा है तो महसूस किया है इतना
तू निगाहों से फ़क़त दिल में उतर सकती है

Jaan nissar akhtar