गुलज़ार देहलवी
बिठा के दिल में गिराया गया नज़र से मुझे
दिखाया तुरफ़ा-तमाशा बला के घर से मुझे
नज़र झुका के उठाई थी जैसे पहली बार
फिर एक बार तो देखो उसी नज़र से मुझे
हमेशा बच के चला हूँ मैं आम राहों से
हटा सका न कोई मेरी रहगुज़र से मुझे
हयात जिस की अमानत है सौंप दूँ उस को
उतारना है ये क़र्ज़ा भी अपने सर से मुझे
सुबू न जाम न मीना से मय पिला बे-शक
पिलाए जा मिरे साक़ी यूँही नज़र से मुझे
जो बात होती है दिल में वो कह गुज़रता हूँ
नहीं है कोई ग़रज़ अह्ले-ए-ख़ैर-ओ-शर से मुझे
न दैर से न हरम से न मय-कदे से मिला
सुकून-ए-रूह मिला है जो तेरे दर से मुझे
किसी की राह-ए-मोहब्बत में बढ़ता जाता हूँ
न राहज़न से ग़रज़ है न राहबर से मुझे
ज़रा तो सोच हिक़ारत से देखने वाले
ज़माना देख रहा है तिरी नज़र से मुझे
ज़माना मेरी नज़र से तो गिर गया लेकिन
गिरा सका न ज़माना तिरी नज़र से मुझे
ये रंग-ओ-नूर का ‘गुलज़ार’ दहर-ए-फ़ानी है
यही पयाम मिला उम्र-ए-मुख़्तसर से मुझे
गुलज़ार दहलवी