दर्द हल्का है साँस भारी है

दर्द हल्का है साँस भारी है 
जिए जाने की रस्म जारी है

आप के बाद हर घड़ी हम ने
आप के साथ ही गुज़ारी है

रात को चाँदनी तो ओढ़ा दो
दिन की चादर अभी उतारी है

शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले
कैसी चुप सी चमन पे तारी है

कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्ताँ हमारी है

क्या बताएं कि जां गयी कैसे
फिर से दोहराएं वो घड़ी कैसे

किसने रास्ते मे चांद रखा था
मुझको ठोकर लगी कैसे

वक़्त पे पांव कब रखा हमने
ज़िंदगी मुंह के बल गिरी कैसे

आंख तो भर आयी थी पानी से
तेरी तस्वीर जल गयी कैसे

हम तो अब याद भी नहीं करते
आप को हिचकी लग गई कैसे

गुलज़ार

हवा गुज़र गयी पत्ते थे कुछ हिले भी नहीं 

हवा गुज़र गयी पत्ते थे कुछ हिले भी नहीं 
वो मेरे शहर में आये भी और मिले भी नहीं

ये कैसा रिश्ता हुआ इश्क में वफ़ा का भला 
तमाम उम्र में दो चार छ: गिले भी नहीं 

इस उम्र में भी कोई अच्छा लगता है लेकिन
दुआ-सलाम के मासूम सिलसिले भी नहीं 

गुलज़ार

दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई

दिन कुछ ऐसे गुज़ारता है कोई 
जैसे एहसान उतारता है कोई 

आईना देख के तसल्ली हुई 
हम को इस घर में जानता है कोई 

पक गया है शज़र पे फल शायद 
फिर से पत्थर उछालता है कोई 

फिर नज़र में लहू के छींटे हैं 
तुम को शायद मुग़ालता है कोई 

देर से गूँजतें हैं सन्नाटे 
जैसे हम को पुकारता है कोई

गुलज़ार

खुशबू जैसे लोग मिले

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में
एक पुराना ख़त खोला अनजाने में

शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे
धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में

जाने किस का ज़िक्र है इस अफ़्साने में
दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में

दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
किस की आहट सुनता हूँ वीराने में

हम इस मोड़ से उठ कर अगले मोड़ चले
उन को शायद उम्र लगेगी आने में

गुलज़ार