Har lafz tire jism ki khushboo mein dhala hai

हर लफ़्ज़ तिरे जिस्म की खुशबू में ढला है
ये तर्ज़, ये अन्दाज-ए-सुख़न हमसे चला है

अरमान हमें एक रहा हो तो कहें भी
क्या जाने, ये दिल कितनी चिताओं में जला है

अब जैसा भी चाहें जिसे हालात बना दें
है यूँ कि कोई शख़्स बुरा है, न भला है

Jaan nissar akhtar

Ujdi ujdi hui har aas lage

उजड़ी-उजड़ी हुई हर आस लगे
ज़िन्दगी राम का बनबास लगे

तू कि बहती हुई नदिया के समान
तुझको देखूँ तो मुझे प्यास लगे

फिर भी छूना उसे आसान नहीं
इतनी दूरी पे भी, जो पास लगे

वक़्त साया-सा कोई छोड़ गया
ये जो इक दर्द का एहसास लगे

एक इक लहर किसी युग की कथा
मुझको गंगा कोई इतिहास लगे

शे’र-ओ-नग़्मे से ये वहशत तेरी
खुद तिरी रूह का इफ़्लास लगे

Jaan nissar akhtar

Zara si baat pe har rasm tod aaya tha

ज़रा सी बात पे हर रस्म तोड़ आया था 
दिल-ए-तबाह ने भी क्या मिज़ाज पाया था 

मुआफ़ कर ना सकी मेरी ज़िन्दगी मुझ को 
वो एक लम्हा कि मैं तुझ से तंग आया था 

शगुफ़्ता फूल सिमट कर कली बने जैसे 
कुछ इस तरह से तूने बदन चुराया था 

गुज़र गया है कोई लम्हा-ए-शरर की तरह 
अभी तो मैं उसे पहचान भी न पाया था 

पता नहीं कि मेरे बाद उन पे क्या गुज़री 
मैं चंद ख़्वाब ज़माने में छोड़ आया था

Jaan nissar akhtar

Zamana aaj nahi dagmaga ke chalne ka

ज़माना आज नहीं डगमगा के चलने का 
सम्भल भी जा कि अभी वक़्त है सम्भलने का 

बहार आये चली जाये फिर चली आये 
मगर ये दर्द का मौसम नहीं बदलने का 

ये ठीक है कि सितारों पे घूम आये हैं 
मगर किसे है सलिक़ा ज़मीं पे चलने का 

फिरे हैं रातों को आवारा हम तो देखा है 
गली गली में समाँ चाँद के निकलने का 

तमाम नशा-ए-हस्ती तमाम कैफ़-ए-वजूद 
वो इक लम्हा तेरे जिस्म के पिघलने का

Jaan nissar akhtar