Tamam umr azabo ka silsila to raha

तमाम उम्र अज़ाबों का सिलसिला तो रहा 
ये कम नहीं हमें जीने का हौसला तो रहा 

गुज़र ही आये किसी तरह तेरे दीवाने 
क़दम क़ादम पे कोई सख़्त मरहला तो रहा 

चलो न इश्क़ ही जीता न अक़्ल हार सकी 
तमाम वक़्त मज़े का मुक़ाबला तो रहा 

मैं तेरी ज़ात में गुम हो सका न तू मुझ में 
बहुत क़रीब थे हम फिर भी फ़ासला तो रहा 

ये और बात कि हर छेड़ लाउबाली थी 
तेरी नज़र का दिलों से मुआमला तो रहा 

बहुत हसीं सही वज़ए-एहतियात तेरी 
मेरी हवस को तेरे प्यार से गिला तो रहा

Jaan nissar akhtar

Subha ki aas kisi lamhe jo ghat jaati hai

सुबह की आस किसी लम्हे जो घट जाती है 
ज़िन्दगी सहम के ख़्वाबों से लिपट जाती है 

शाम ढलते ही तेरा दर्द चमक उठता है 
तीरगी दूर तलक रात की छट जाती है 

बर्फ़ सीनों की न पिघले तो यही रूद-ए-हयात 
जू-ए-कम-आब की मानिंद सिमट जाती है 

आहटें कौन सी ख़्वाबों में बसी है जाने 
आज भी रात गये नींद उचट जाती है 

हाँ ख़बर-दार कि इक लग़्ज़िश-ए-पा से भी कभी 
सारी तारीख़ की रफ़्तार पलट जाती है

Jaan nissar akhtar

Subha ke dard ko raaton ki jalan ko bhulen

सुबह के दर्द को रातों की जलन को भूलें 
किसके घर जायेँ कि उस वादा-शिकन को भूलें 

आज तक चोट दबाये नहीं दबती दिल की 
किस तरह उस सनम-ए-संगबदन को भूलें 

अब सिवा इसके मदावा-ए-ग़म-ए-दिल क्या है 
इतनी पी जायेँ कि हर रंज-ओ-मेहन को भूलें 

और तहज़ीब-ए-गम-ए-इश्क़ निबाह दे कुछ दिन 
आख़िरी वक़्त में क्या अपने चलन को भूलें

Jaan nissar akhtar

Sau chand bhi chamkenge to kya baat banegi

सौ चांद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी
तुम आये तो इस रात की औक़ात बनेगी 

उन से यही कह आये कि हम अब न मिलेंगे 
आख़िर कोई तक़रीब-ए-मुलाक़ात बनेगी 

ये हम से न होगा कि किसी एक को चाहें
ऐ इश्क़! हमारी न तेरे साथ बनेगी 

हैरत कदा-ए-हुस्न कहाँ है अभी दुनिया
कुछ और निखर ले तो तिलिस्मात बनेगी 

ये क्या के बढ़ते चलो बढ़ते चलो आगे 
जब बैठ के सोचेंगे तो कुछ बात बनेगी

Jaan nissar akhtar