हर इक सूरत हर इक तस्वीर मुबहम होती जाती है
इलाही, क्या मिरी दीवानगी कम होती जाती है
ज़माना गर्मे-रफ्तारे-तरक्क़ी होता जाता है
मगर इक चश्मे -शायर है की पुरनम होती जाती है
यही जी चाहता है छेड़ते ही छेड़ते रहिये
बहुत दिलकश अदाए-हुस्ने-बरहम होती जाती है
तसव्वुर रफ़्ता-रफ़्ता इक सरापा बनाता जाता है
वो इक शै जो मुझी में है ,मुजस्सिम होती जाती है
वो रह-रहकर गले मिल-मिलके रुख़सत होते जाते है
मिरी आँखों से या रब ! रौशनी कम होती जाती है
‘जिगर’ तेरे सुकूते-ग़म ने ये क्या कह दिया उनसे
झुकी पड़ती है नज़रे ,आंख पुरनम होती जाती है
Jigar moradabadi