Ho ke mayus na yu sham se dhalte rahiye

हो के मायूस न यूं शाम-से ढलते रहिये
ज़िन्दगी भोर है सूरज-से निकलते रहिये

एक ही ठांव पे ठहरेंगे तो थक जायेंगे
धीरे-धीरे ही सही राह पे चलते रहिये

आपको ऊँचे जो उठना है तो आंसू की तरह
दिल से आँखों की तरफ हँस के उछलते रहिये

शाम को गिरता है तो सुबह संभल जाता है
आप सूरज की तरह गिर के संभलते रहिये

प्यार से अच्छा नहीं कोई भी सांचा ऐ ‘कुँअर’
मोम बनके इसी सांचे में पिघलते रहिये

– कुँअर बेचैन

Maut to aani hai to fir maut ka kyo dar rakhu

मौत तो आनी है तो फिर मौत का क्यों डर रखूँ
जिन्दगी आ, तेरे क़दमों पर मैं अपना सर रखूँ

जिसमें माँ और बाप की सेवा का शुभ संकल्प हो
चाहता हूँ मैं भी काँधे पर वही काँवर रखूँ

हाँ, मुझे उड़ना है लेकिन इसका मतलब यह नहीं
अपने सच्चे बाज़ुओं में इसके-उसके पर रखूँ

आज कैसे इम्तहाँ में उसने डाला है है मुझे
हुक्म यह देकर कि अपना धड़ रखूँ या सर रखूँ

कौन जाने कब बुलावा आए और जाना पड़े
सोचता हूँ हर घड़ी तैयार अब बिस्तर रखूँ

ऐसा कहना हो गया है मेरी आदत में शुमार
काम वो तो कर लिया है काम ये भी कर रख रखूँ

खेल भी चलता रहे और बात भी होती रहे
तुम सवालों को रखो मैं सामने उत्तर रखूँ

– कुँअर बेचैन

Hum bahut Roye kisi tyohar se alag rehkar

हम बहुत रोए किसी त्यौहार से रहकर अलग,
जी सका है कौन अपने प्यार से रहकर अलग ।

चाहे कोई हो उसे कुछ तो सहारा चाहिए,
सज सकी तस्वीर कब दीवार से रहकर अलग ।

क़त्ल केवल क़त्ल और इसके सिवा कुछ भी नहीं,
आप कुछ तो सोचिए तलवार से रहकर अलग ।

हाथ में आते ही बन जाते हैं मूरत प्यार की,
शब्द मिटटी हैं किसी फ़नकाार से रहकर अलग ।

वो यही कुछ सोचकर बाज़ार में ख़ुद आ गया,
क़द्र हीरे की है कब बाज़ार से रहकर अलग ।

काम करने वाले अपने नाम की भी फ़िक्र कर,
सुर्ख़ियाँ बेकार हैं अख़बार से रहकर अलग ।

स्वर्ण-मुद्राए~म तुम्हारी भी हथेली चूमतीं,
तुम ग़ज़ल कहते रहे दरबार से रहकर अलग ।

सिर्फ़ वे ही लोग पिछड़े ज़िन्दगी की दौड़ में,
वो जो दौड़े वक़्त की रफ़्तार से रहकर अलग ।

हो रुकावट सामने तो और ऊँचा उठ ‘कुँअर’
सीढ़ियाँ बनतीं नहीं दीवार से रहकर अलग ।

– कुँअर बेचैन

Hum kahan ruswa hue ruswaiyo ko kya khabar

हम कहाँ रुस्वा हुए रुसवाइयों को क्या ख़बर,
डूबकर उबरे न क्यूँ गहराइयों को क्या ख़बर ।

ज़ख़्म क्यों गहरे हुए होते रहे होते गए,
जिस्म से बिछुड़ी हुई परछाइयों को क्या ख़बर ।

क्यों तड़पती ही रहीं दिल में हमारे बिजलियाँ,
क्यों ये दिल बादल बना अंगड़ाइयों को क्या ख़बर ।

कौन सी पागल धुनें पागल बनातीं हैं हमें,
होंठ से लिपटी हुई शहनाइयों को क्या ख़बर ।

किस क़दर तन्हा हुए हम शहर की इस भीड़ में,
यह भटकती भीड़ की तन्हाइयों को क्या ख़बर ।

कब कहाँ घायल हुईं पागल नदी की उँगलियाँ
बर्फ़ में ठहरी हुई ऊँचाइयों को क्या ख़बर ।

क्यों पुराना दर्द उठ्ठा है किसी दिल में कुँअर
यह ग़ज़ल गाती हुई पुरवाइयों को क्या ख़बर ।

– कुँअर बेचैन