Mai unhe chedu aur kuch na kahe

मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें 
चल निकलते, जो मय पिये होते 

क़हर हो, या बला हो, जो कुछ हो 
काश कि तुम मेरे लिये होते 

मेरी क़िस्मत में ग़म गर इतना था 
दिल भी, या रब, कई दिये होते 

आ ही जाता वो राह पर, “ग़ालिब” 
कोई दिन और भी जिये होते

Mirza Ghalib

Dil hi to hai na sang-o-khisht

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं 
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों 

जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरते-मेह्रे-नीमरोज़ 
आप ही हो नज़ारा-सोज़, पर्दे में मुँह छिपाये क्यों 

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जांसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह 
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों

क़ैदे-हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं 
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों 

हुस्न और उसपे हुस्न-ज़न रह गई बुल्हवस की शर्म 
अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों 

वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-वज़अ़
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यों 

हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही 
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों

“ग़ालिब”-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं 
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों

Ek ek katre ka mujhe dena pada hisaab

एक-एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
ख़ून-ए-जिगर, वदीअ़त-ए-मिज़गान-ए-यार था

अब मैं हूँ और मातम-ए-यक-शहर-आरज़ू
तोड़ा जो तूने आईना तिमसाल-दार था

गलियों में मेरी नाश को खींचे फिरो कि मैं
जां-दादा-ए-हवा-ए-सर-ए-रहगुज़ार था

मौज-ए-सराब-ए-दश्त-ए-वफ़ा का न पूछ हाल
हर ज़र्रा मिस्ल-ए-जौहर-ए-तेग़ आबदार था

कम जानते थे हम भी ग़म-ए-इश्क़ को पर अब
देखा तो कम हुए पे ग़म-ए-रोज़गार था

किस का जुनून-ए-दीद तमन्ना-शिकार था
आईना-ख़ाना वादी-ए-जौहर-ग़ुबार था

किस का ख़याल आईना-ए-इन्तिज़ार था
हर बरग-ए-गुल के परदे में दिल बे-क़रार था

जूं ग़ुन्चा-ओ-गुल आफ़त-ए-फ़ाल-ए-नज़र न पूछ
पैकां से तेरे जलवा-ए-ज़ख़म आशकार था

देखी वफ़ा-ए-फ़ुरसत-ए-रंज-ओ-निशात-ए-दहर
ख़मियाज़ा यक दराज़ी-ए-उमर-ए-ख़ुमार था

सुबह-ए-क़यामत एक दुम-ए-गुरग थी असद
जिस दश्त में वह शोख़-ए-दो-आ़लम शिकार था

Mirza Ghalib