Bas ki dushwar hai har kaam ka aasan hona

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

गिरियां चाहे है ख़राबी मेरे काशाने की
दर-ओ-दीवार से टपके है बयाबां होना

वाए, दीवानगी-ए-शौक़ कि हरदम मुझको
आप जाना उधर और आप ही हैरां होना

जल्वा अज़-बसकि तक़ाज़ा-ए-निगह करता है
जौहर-ए-आईना भी चाहे है मिज़गां होना

इशरते-क़त्लगहे-अहले-तमन्ना मत पूछ
ईद-ए-नज़्ज़ारा है शमशीर का उरियां होना

ले गये ख़ाक में हम दाग़-ए-तमन्ना-ए-निशात
तू हो और आप बसद-रंग गुलिस्तां होना

इशरत-ए-पारा-ए-दिल ज़ख़्म-ए-तमन्ना ख़ाना
लज़्ज़त-ए-रेश-ए-जिग़र ग़र्क़-ए-नमकदां होना

की मेरे क़त्ल के बाद उसने जफ़ा से तौबा
हाय उस ज़ूद-पशेमां का पशेमां होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत ‘ग़ालिब’
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना

Ye na thi hamari kismat ke visaal-e-yaar hota

ये न थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता 
अगर और जीते रहते यही इन्तज़ार होता 

तेरे वादे पर जिये हम तो ये जान झूठ जाना 
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ऐतबार होता 

तेरी नाज़ुकी से जाना कि बंधा था अ़हद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता 

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को 
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता 

ये कहां की दोस्ती है कि बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता, कोई ग़मगुसार होता 

रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न थमता 
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता 

ग़म अगर्चे जां-गुसिल है, पर कहां बचे कि दिल है 
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता 

कहूँ किससे मैं कि क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है 
मुझे क्या बुरा था मरना? अगर एक बार होता 

हुए मर के हम जो रुस्वा, हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया 
न कभी जनाज़ा उठता, न कहीं मज़ार होता 

उसे कौन देख सकता, कि यग़ाना है वो यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो चार होता 

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान “ग़ालिब”! 
तुझे हम वली समझते, जो न बादाख़्वार होता

Mirza Ghalib

Dard minnat-kash-e-dawa na hua

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ

जमा करते हो क्यों रक़ीबों को?
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहां क़िस्मत आज़माने जाएं?
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ

कितने शीरीं हैं तेरे लब! कि रक़ीब
गालियां खाके बे-मज़ा न हुआ

है ख़बर गर्म उनके आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ

क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मेरा भला न हुआ

जान दी, दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूं है, कि हक़ अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गया, लहू न थमा
काम गर रुक गया रवां न हुआ

रहज़नी है कि दिल-सितानी है?
लेके दिल दिलसितां रवाना हुआ

कुछ तो पढ़िये कि लोग कहते हैं
“आज ‘ग़ालिब’ ग़ज़लसरा न हुआ”

Na tha kuch to khuda tha

न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता!

हुआ जब ग़म से यूँ बेहिस तो ग़म क्या सर के कटने का ?
न होता गर जुदा तन से, तो ज़ानू पर धरा होता

हुई मुद्दत के ‘ग़ालिब’ मर गया, पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता?

Mirza Ghalib