Aaina dekh apna sa muh leke reh gaye

आईना देख अपना सा मुंह लेके रह गये
साहिब को दिल न देने पे कितना ग़ुरूर था

क़ासिद को अपने हाथ से गरदन न मारिये
उस की ख़ता नहीं है यह मेरा क़सूर था

Zor se baaz aaye par baaz aaye kya

ज़ौर से बाज़ आये पर बाज़ आयें क्या 
कहते हैं, हम तुम को मुँह दिखलायें क्या 

रात-दिन गर्दिश में हैं सात आस्मां 
हो रहेगा कुछ-न-कुछ घबरायें क्या 

लाग हो तो उस को हम समझें लगाव 
जब न हो कुछ भी, तो धोखा खायें क्या 

हो लिये क्यों नामाबर के साथ-साथ 
या रब! अपने ख़त को हम पहुँचायें क्या 

मौज-ए-ख़ूँ सर से गुज़र ही क्यों न जाये 
आस्तान-ए-यार से उठ जायें क्या 

उम्र भर देखा किये मरने की राह 
मर गए पर देखिये दिखलायें क्या 

पूछते हैं वो कि “ग़ालिब” कौन है 
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या

Mirza Ghalib

Bala se hai jo b pesh-e nazar dar-o-deewar

बला से हैं जो ब पेश-ए नज़र दर-ओ-दीवार
निगाह-ए शौक़ को हैं बाल-ओ-पर दर-ओ-दीवार

वुफ़ूर-ए-अशक ने काशाने का किया यह रनग
कि हो गए मिरे दीवार-ओ-दर दर-ओ-दीवार

नहीं है सायह कि सुन कर नवेद-ए मक़दम-ए यार
गए हैं चनद क़दम पेशतर दर-ओ-दीवार

हुई है किस क़दर अरज़ानी-ए मै-ए जलवह
कि मसत है तिरे कूचे में हर दर-ओ-दीवार

जो है तुझे सर-ए सौदा-ए इनतिज़ार तो आ
कि हैं दुकान-ए मता`-ए नज़र दर-ओ-दीवार

हुजूम-ए गिरयह का सामान कब किया मैं ने
कि गिर पड़े न मिरे पांव पर दर-ओ-दीवार

वह आ रहा मिरे हम-साये में तो साये से
हुए फ़िदा दर-ओ-दीवार पर दर-ओ-दीवार

नज़र में खटके है बिन तेरे घर की आबादी
हमेशह रोते हैं हम देख कर दर-ओ-दीवार

न पूछ बे-ख़वुदी-ए ऐश-ए मक़दम-ए सैलाब
कि नाचते हैं पड़े सर ब सर दर-ओ-दीवार

न कह किसी से कि ग़ालिब नहीं ज़माने में
हरीफ़-ए राज़-ए मुहबबत मगर दर-ओ-दीवार

Mirza Ghalib

Ghar jab bana liya tere dar par kahe bagair

घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर 
जानेगा अब भी तू न मेरा घर कहे बग़ैर 

कहते हैं, जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न
जानूं किसी के दिल की मैं क्योंकर कहे बग़ैर 

काम उससे आ पड़ा है कि जिसका जहान में 
लेवे ना कोई नाम सितमगर कहे बग़ैर 

जी में ही कुछ नहीं है हमारे, वगरना हम 
सर जाये या रहे, न रहें पर कहे बग़ैर 

छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना 
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर 

मक़सद है नाज़-ओ-ग़म्ज़ा वले गुफ़्तगू में काम 
चलता नहीं है, दश्ना-ओ-ख़ंजर कहे बग़ैर 

हरचन्द हो मुशाहित-ए-हक़ की गुफ़्तगू 
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर 

बहरा हूँ मैं तो चाहिये दूना हो इल्तफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात मुक़र्रर कहे बग़ैर 

“ग़ालिब” न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज़ 
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर

Mirza Ghalib