Hai bas ki har ek unke ishare me nisha aur

है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और 
करते हैं मुहब्बत तो गुज़रता है गुमाँ और 

या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात 
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़ुबाँ और 

आबरू से है क्या उस निगाह -ए-नाज़ को पैबंद 
है तीर मुक़र्रर मगर उसकी है कमाँ और 

तुम शहर में हो तो हमें क्या ग़म जब उठेंगे 
ले आयेंगे बाज़ार से जाकर दिल-ओ-जाँ और 

हरचंद सुबुकदस्त हुए बुतशिकनी में 
हम हैं तो अभी राह में है संग-ए-गिराँ और 

है ख़ून-ए-जिगर जोश में दिल खोल के रोता 
होते कई जो दीदा-ए-ख़ूँनाबफ़िशाँ और 

मरता हूँ इस आवाज़ पे हरचंद सर उड़ जाये 
जल्लाद को लेकिन वो कहे जाये कि हाँ और 

लोगों को है ख़ुर्शीद-ए-जहाँ-ताब का धोका 
हर रोज़ दिखाता हूँ मैं इक दाग़-ए-निहाँ और 

लेता न अगर दिल तुम्हें देता कोई दम चैन 
करता जो न मरता कोई दिन आह-ओ-फ़ुग़ाँ और 

पाते नहीं जब राह तो चढ़ जाते हैं नाले 
रुकती है मेरी तब’अ तो होती है रवाँ और 

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे 
कहते हैं कि ‘ग़ालिब’ का है अंदाज़-ए-बयाँ और 

Mirza Ghalib

Lazim tha ki dekho mera rasta koi din aur

लाज़िम था कि देखो मेरा रस्ता कोई दिन और 
तन्हा गये क्यों? अब रहो तन्हा कोई दिन और 

मिट जायेगा सर, गर तेरा पत्थर न घिसेगा 
हूँ दर पे तेरे नासिया-फ़र्सा कोई दिन और 

आये हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊँ 
माना कि हमेशा नहीं, अच्छा, कोई दिन और 

जाते हुए कहते हो, क़यामत को मिलेंगे 
क्या ख़ूब! क़यामत का है गोया कोई दिन और 

हाँ ऐ फ़लक-ए-पीर, जवां था अभी आ़रिफ़ 
क्या तेरा बिगड़ता जो न मरता कोई दिन और 

तुम माह-ए-शब-ए-चार-दहुम थे मेरे घर के 
फिर क्यों न रहा घर का वो नक़्शा कोई दिन और 

तुम कौन से ऐसे थे खरे दाद-ओ-सितद के 
करता मलक-उल-मौत तक़ाज़ा कोई दिन और 

मुझसे तुम्हें नफ़रत सही, नय्यर से लड़ाई 
बच्चों का भी देखा न तमाशा कोई दिन और 

ग़ुज़री न बहरहाल या मुद्दत ख़ुशी-नाख़ुश 
करना था, जवां-मर्ग! गुज़ारा कोई दिन और 

नादां हो जो कहते हो कि क्यों जीते हो ‘ग़ालिब’ 
क़िस्मत में है मरने की तमन्ना कोई दिन और

Mirza Ghalib

Aah ko chahiye ek umr asar hone tak

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तॆरी ज़ुल्फ कॆ सर होने तक!

दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग 
देखे क्या गुजरती है कतरे पे गुहर होने तक!

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब‌
दिल का क्या रंग करूं खून‍-ए-जिगर होने तक!

हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन‌
ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक!

परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम 
में भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक!

यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सते-हस्ती गाफिल 
गर्मी-ए-बज्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक!

गम-ए-हस्ती का “असद” कैसे हो जुज-मर्ग-इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक! 

Ki wafa humse to gair use jafa kehte hai

की वफ़ा हमसे तो ग़ैर उसे जफ़ा कहते हैं 
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं 

आज हम अपनी परीशानी-ए-ख़ातिर उनसे 
कहने जाते तो हैं, पर देखिए क्या कहते हैं 

अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो 
जो मै-ओ-नग़्माँ को अ़न्दोहरूबा कहते हैं 

दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्सत ग़म से 
और फिर कौन-से नाले को रसा कहते हैं

है परे सरहदे-इदराक से अपना मस्जूद
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबलानुमा कहते हैं 

पाए-अफ़गार पे जब से तुझे रहम आया है 
ख़ार-ए-रह को तेरे हम मेहर-गिया कहते हैं 

इक शरर दिल में है उससे कोई घबरायेगा क्या 
आग मतलूब है हमको जो हवा कहते हैं 

देखिए लाती है उस शोख़ की नख़वत क्या रंग 
उसकी हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं 

वहशत-ओ-शेफ़्ता अब मर्सिया कहवें शायद 
मर गया ग़ालिब-ए-आशुफ़्ता-नवा कहते हैं

Mirza Ghalib