क़फ़स में हूं गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को
नहीं गर हम-दमी आसां न हो यह रश्क कया कम है
न दी होती ख़ुदाया आरज़ू-ए-दोस्त दुश्मन को
न निकला आंख से तेरी इक आंसू उस जराहत पर
किया सीने में जिस ने ख़ूं-चकां मिज़गान-ए-सोज़न को
ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
कभी मेरे गरेबां को कभी जानां के दामन को
अभी हम क़तल-गह का देखना आसां समझते हैं
नहीं देखा शिनावर जू-ए-ख़ूं में तेरे तौसन को
हुआ चरचा जो मेरे पांव की ज़ंजीर बनने का
किया बेताब कां में जुनबिश-ए जौहर ने आहन को
ख़ुशी क्या खेत पर मेरे अगर सौ बार अब्र आवे
समझता हूं कि ढूंढे है अभी से बरक़ ख़िरमन को
वफ़ादारी ब-शरत-ए-उसतुवारी अस्ल-ए-ईमां है
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाढ़ो बरहमन को
शहादत थी मिरी क़िसमत में जो दी थी यह ख़ू मुझ को
जहां तलवार को देखा झुका देता था गरदन को
न लुटता दिन को तो कब रात को यूं बे-ख़बर सोता
रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूं रहज़न को
सुख़न क्या कह नहीं सकते कि जूया हों जवाहिर के
जिगर क्या हम नहीं रखते कि खोदें जा के मादन को
मिरे शाह-ए-सुलैमां-जाह से निसबत नहीं ग़ालिब
फ़रीदून-ओ-जम-ओ-कैख़ुसरव-ओ-दाराब-ओ-बहमन को
Mirza Ghalib