Meharban hoke bula lo mujhe chaho jis waqt

मेहरबां होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ के फिर आ भी न सकूँ

ज़ोफ़ में ताना-ए-अग़यार का शिकवा क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न सकूँ

ज़हर मिलता ही नहीं मुझको सितमगर वरना
क्या क़सम है तेरे मिलने की कि खा भी न सकूँ

Mirza Ghalib

Warasta isse hai ki muhabbat hi kyo na ho

वारस्ता इससे हैं कि मुहब्बत ही क्यों न हो
कीजे हमारे साथ अदावत ही क्यूं न हो

छोड़ा न मुझ में ज़ु’फ़ ने रंग इख़तिलात का
है दिल पे बार नक़श-ए-मुहबबत ही क्यूं न हो

है मुझ को तुझ से तज़किरा-ए-ग़ैर का गिला
हर-चंद बर-सबील-ए शिकायत ही क्यूं न हो

पैदा हुई है कहते हैं हर दरद की दवा
यूं हो तो चारा-ए ग़म-ए-उलफ़त ही क्यूं न हो

डाला न बेकसी ने किसी से मुआमिला
अपने से खेंचता हूं ख़जालत ही कयूं न हो

है आदमी बजा-ए-ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
हम अंजुमन समझते हैं ख़लवत ही कयूं न हो

हंगामा-ए-ज़बूनी-ए-हिम्मत है इन्फ़िआल
हासिल न कीजे दहर से इबरत ही क्यूं न हो

वा-रसतगी बहाना-ए-बेगानगी नहीं
अपने से कर न ग़ैर से वहशत ही कयूं न हो

मिटता है फ़ौत-ए फ़ुरसत-ए-हस्ती का ग़म कोई
उमर-ए-अज़ीज़ सरफ़-ए-इबादत ही क्यूं न हो

उस फ़ितना-ख़ू के दर से अब उठते नहीं ‘असद’
उस में हमारे सर पे क़यामत ही क्यूं न हो

Mirza Ghalib

Kafas me hu gar achha bhi na jane mere shevan ko

क़फ़स में हूं गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
मिरा होना बुरा क्या है नवा-संजान-ए-गुलशन को

नहीं गर हम-दमी आसां न हो यह रश्क कया कम है
न दी होती ख़ुदाया आरज़ू-ए-दोस्त दुश्मन को

न निकला आंख से तेरी इक आंसू उस जराहत पर
किया सीने में जिस ने ख़ूं-चकां मिज़गान-ए-सोज़न को

ख़ुदा शरमाए हाथों को कि रखते हैं कशाकश में
कभी मेरे गरेबां को कभी जानां के दामन को

अभी हम क़तल-गह का देखना आसां समझते हैं
नहीं देखा शिनावर जू-ए-ख़ूं में तेरे तौसन को

हुआ चरचा जो मेरे पांव की ज़ंजीर बनने का
किया बेताब कां में जुनबिश-ए जौहर ने आहन को

ख़ुशी क्या खेत पर मेरे अगर सौ बार अब्र आवे
समझता हूं कि ढूंढे है अभी से बरक़ ख़िरमन को

वफ़ादारी ब-शरत-ए-उसतुवारी अस्ल-ए-ईमां है
मरे बुत-ख़ाने में तो काबे में गाढ़ो बरहमन को

शहादत थी मिरी क़िसमत में जो दी थी यह ख़ू मुझ को
जहां तलवार को देखा झुका देता था गरदन को

न लुटता दिन को तो कब रात को यूं बे-ख़बर सोता
रहा खटका न चोरी का दुआ देता हूं रहज़न को

सुख़न क्या कह नहीं सकते कि जूया हों जवाहिर के
जिगर क्या हम नहीं रखते कि खोदें जा के मादन को

मिरे शाह-ए-सुलैमां-जाह से निसबत नहीं ग़ालिब
फ़रीदून-ओ-जम-ओ-कैख़ुसरव-ओ-दाराब-ओ-बहमन को

Mirza Ghalib

Dhota hu jab mai pine ko us seemtan ke paav

धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीमतन के पाँव
रखता है ज़िद से खेंच कर बाहर लगन के पाँव

दी सादगी से जान पड़ूँ कोहकन के पाँव
हैहात क्यों न टूट गए पीरज़न के पाँव

भागे थे हम बहुत सो उसी की सज़ा है ये
होकर असीर दाबते हैं राहज़न के पाँव

मरहम की जुस्तजू में फिरा हूँ जो दूर-दूर
तन से सिवा फ़िग़ार हैं इस ख़स्ता तन के पाँव

अल्लाह रे ज़ौक़-ए-दश्तनवर्दी के बादे-मर्ग
हिलते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद मेरे अंदर कफ़न के पाँव

है जोश-ए-गुल बहार में याँ तक कि हर तरफ़
उड़ते हुए उलझते हैं मुर्ग़-ए-चमन के पाँव

शब को किसी के ख़्वाब में आया न हो कहीं
दुखते हैं आज उस बुते-नाज़ुकबदन के पाँव

‘ग़ालिब’ मेरे कलाम में क्यों कर मज़ा न हो
पीता हूँ धो के खुसरौ-ए-शीरींसुख़न के पाँव 

Mirza Ghalib