Gai wo baat ki ho guftgu to kyo kar ho

गई वो बात कि हो गुफ़्तगू तो क्यों कर हो 
कहे से कुछ न हुआ फिर कहो तो क्यों कर हो

हमारे ज़हन में इस फ़िक्र का है नाम विसाल
कि गर न हो तो कहाँ जायें हो तो क्यों कर हो

अदब है और यही कशमकश तो क्या कीजे
हया है और यही गोमगो तो क्यों कर हो

तुम्हीं कहो कि गुज़ारा सनम परस्तों का
बुतों की हो अगर ऐसी ही ख़ू तो क्यों कर हो

उलझते हो तुम अगर देखते हो आईना
जो तुम से शहर में हो एक दो तो क्यों कर हो

जिसे नसीब हो रोज़-ए-सियाह मेरा सा
वो शख़्स दिन न कहे रात को तो क्यों कर हो

हमें फिर उन से उमीद और उन्हें हमारी क़द्र
हमारी बात ही पूछे न वो तो क्यों कर हो

ग़लत न था हमें ख़त पर गुमाँ तसल्ली का
न माने दीदा-ए-दीदारजू तो क्यों कर हो

बताओ उस मिज़ां को देखकर हो मुझ को क़रार
यह नेश हो रग-ए-जां में फ़रो तो क्यों कर हो

मुझे जुनूं नहीं “ग़ालिब” वले बक़ौल-ए-हुज़ूर
फ़िराक़-ए-यार में तस्कीन हो तो क्यों कर हो

Mirza Ghalib

Tum jano tum ko gair se jo rasm-o-raah ho

तुम जानो तुम को ग़ैर से जो रस्म ओ राह हो
मुझ को भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो

बचते नहीं मुवाख़ज़ा-ए-रोज-ए-हश्र से
क़ातिल अगर रक़ीब है तो तुम गवाह हो

क्या वो भी बे-गुनह-कुश ओ हक़-ना-शनास हैं
माना कि तुम बशर नहीं ख़ुर्शीद ओ माह हो

उभरा हुआ नक़ाब में है उन के एक तार
मरता हूँ मैं के ये न किसी की निगाह हो

जब मय-कदा छुटा तो फिर अब क्या जगह की क़ैद
मस्जिद हो मदरसा हो कोई ख़ानक़ाह हो

सुनते हैं जो बहिश्त की तारीफ़ सब दुरुस्त
लेकिन ख़ुदा करे वो तेरा जलवा-गाह हो

‘ग़ालिब’ भी गर न हो तो कुछ ऐसा ज़र्र नहीं
दुनिया हो या रब और मेरा बादशाह हो

Mirza Ghalib

Rahiye ab aisi jagah chalkar jaha koi na ho

रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो
हमसुख़न कोई न हो और हमज़बाँ कोई न हो

बेदर-ओ-दीवार सा इक घर बनाया चाहिये
कोई हमसाया न हो और पासबाँ कोई न हो

पड़िये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार
और अगर मर जाईये तो नौहाख़्वाँ कोई न हो

Mirza Ghalib

Gham-e-duniya se gar payi bhi fursat sar uthane ki

ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की 
फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की 

खुलेगा किस तरह मज़मूँ मेरे मक्तूब का यारब 
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की 

लिपटना परनियाँ में शोला-ए-आतिश का आसाँ है 
वले मुश्किल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की

उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्मियों का देख आना था 
उठे थे सैर-ए-गुल को देखना शोख़ी बहाने की 

हमारी सादगी थी इल्तफ़ात-ए-नाज़ पर मरना 
तेरा आना न था ज़ालिम मगर तमहीद जाने की 

लक़द-कोब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मेरी ताक़त के ज़ामिं थी बुतों के नाज़ उठाने की 

कहूँ क्या ख़ूबी-ए-औज़ाग़-ए-इब्ना-ए-ज़माँ “ग़ालिब” 
बदी की उसने जिस से हमने की थी बारहा नेकी 

Mirza Ghalib