Ishq mujhko nahi vehshat hi sahi

इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही 
मेरी वहशत, तेरी शोहरत ही सही 

क़तअ़ कीजे न तअ़ल्लुक़ हम से 
कुछ नहीं है, तो अ़दावत ही सही 

मेरे होने में है क्या रुस्वाई?
ऐ वो मजलिस नहीं ख़िल्वत ही सही 

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मुहब्बत ही सही 

अपनी हस्ती ही से हो, जो कुछ हो 
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही 

उम्र हरचंद कि है बर्क़-ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही सही 

हम कोई तर्क़-ए-वफ़ा करते हैं 
न सही इश्क़ मुसीबत ही सही 

कुछ तो दे, ऐ फ़लक ए-नाइन्साफ़
आह-ओ-फ़रिय़ाद की रुख़सत ही सही 

हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे 
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही 

यार से छेड़ चली जाये, “असद” 
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही

Mirza Ghalib

Sadgi par uski mar jane ki hasrat dil me hai

सादगी पर उस की मर जाने की हसरत दिल में है
बस नहीं चलता कि फिर ख़न्जर कफ़-ए-क़ातिल में है

देखना तक़रीर की लज़्ज़त कि जो उसने कहा
मैंने यह जाना कि गोया यह भी मेरे दिल में है

गरचे है किस किस बुराई से वले बा ईं हमा
ज़िक्र मेरा मुझ से बेहतर है कि उस महफ़िल में है

बस हुजूम-ए-ना उमीदी ख़ाक में मिल जायगी
यह जो इक लज़्ज़त हमारी सइ-ए-बेहासिल में है

रंज-ए-रह क्यों खेंचिये वामांदगी को इश्क़ है
उठ नहीं सकता हमारा जो क़दम मंज़िल में है

जल्वा ज़ार-ए-आतश-ए-दोज़ख़ हमारा दिल सही
फ़ितना-ए-शोर-ए-क़यामत किस की आब-ओ-गिल में है

है दिल-ए-शोरीदा-ए-ग़ालिब तिलिस्म-ए-पेच-ओ-ताब
रहम कर अपनी तमन्ना पर कि किस मुश्किल में है

Mirza Ghalib

Dil se teri nigaah jigar tak utar gayi

दिल से तेरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ामन्द कर गई

चाक़ हो गया है सीना ख़ुशा लज़्ज़त-ए-फ़राग़ 
तक्लीफ़-ए-पर्दादारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर गई

वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ कहाँ 
उठिये बस अब कि लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई

उड़ती फिरे है ख़ाक मेरी कू-ए-यार में 
बारे अब ऐ हवा, हवस-ए-बाल-ओ-पर गई

देखो तो दिल फ़रेबि-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा 
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल कतर गई

हर बुलहवस ने हुस्न परस्ती शिआर की 
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई

नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ नक़ाब का 
मस्ती से हर निगह तेरे रुख़ पर बिखर गई

फ़र्दा-ओ-दीं का तफ़रक़ा यक बार मिट गया 
कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र गई

मारा ज़माने ने ‘असदुल्लह ख़ाँ” तुम्हें 
वो वलवले कहाँ, वो जवानी किधर गई 

Mirza Ghalib

Koi din gar zindgaani aur hai

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है 
अपने जी में हमने ठानी और है 

आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ 
सोज़-ए-ग़म-हाए-निहानी और है 

बारहा देखीं हैं उनकी रंजिशें 
पर कुछ अब के सर-गिराऩी और है 

देके ख़त मुँह देखता है नामाबर 
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है 

क़ातर-अ़अ़मार हैं अक्सर नुजूम
वो बला-ए-आसमानी और है 

हो चुकीं “ग़ालिब” बलाएं सब तमाम 
एक मर्ग-ए-नागहानी और है