Koi ummeed bar nahi aati

कोई उम्मीद बर नहीं आती 
कोई सूरत नज़र नहीं आती 

मौत का एक दिन मु’अय्यन है 
नींद क्यों रात भर नहीं आती 

आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी 
अब किसी बात पर नहीं आती 

जानता हूँ सवाब-ए-ता’अत-ओ-ज़हद 
पर तबीयत इधर नहीं आती 

है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ 
वर्ना क्या बात कर नहीं आती 

क्यों न चीख़ूँ कि याद करते हैं 
मेरी आवाज़ गर नहीं आती 

दाग़-ए-दिल नज़र नहीं आता 
बू-ए-चारागर नहीं आती 

हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी 
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती 

मरते हैं आरज़ू में मरने की 
मौत आती है पर नहीं आती 

काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’ 
शर्म तुमको मगर नहीं आती 

Mirza Ghalib

Dil-e-nadan tujhe hua kya hai

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है 
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है 

हम हैं मुश्ताक़ और वो बेज़ार 
या इलाही ये माजरा क्या है 

मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ 
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है 

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद 
फिर ये हंगामा, ऐ ख़ुदा क्या है 

ये परी चेहरा लोग कैसे हैं 
ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अदा क्या है

शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरी क्यों है 
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा क्या है 

सब्ज़ा-ओ-गुल कहाँ से आये हैं 
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है 

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद 
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है 

हाँ भला कर तेरा भला होगा 
और दरवेश की सदा क्या है 

जान तुम पर निसार करता हूँ 
मैं नहीं जानता दुआ क्या है 

मैंने माना कि कुछ नहीं ‘ग़ालिब’
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है 

Mirza Ghalib

Har ek baat pe kehte ho tum ki tu kya hai

हर एक बात पे कहते हो तुम कि ‘तू क्या है’ 
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है 

न शो’ले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा 
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है 

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे 
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है 

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है 

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा 
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है 

रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है 

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है 

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार 
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है 

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी 
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है 

हुआ है शह का मुसाहिब, फिरे है इतराता 
वगर्ना शहर में “ग़ालिब” की आबरू क्या है

Mirza Ghalib

Hazaro khwahishe aisi ki har khwahish pe dum nikle

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि, हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यों मेरा क़ातिल, क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो ख़ूँ, जो चश्मे-तर से उम्र यूँ दम-ब-दम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का पेच-ओ-ख़म निकले

हुई इस दौर में मंसूब मुझ से बादा-आशामी
फिर आया वह ज़माना जो जहां में जाम-ए-जम निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम निकले

अगर लिखवाए कोई उसको ख़त, तो हमसे लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रख कर क़लम निकले

ज़रा कर ज़ोर सीने में कि तीरे-पुर-सितम निकले
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले

मुहब्बत में नही है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस क़ाफ़िर पे दम निकले

ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे का उठा ज़ालिम
कहीं ऐसा न हो यां भी वही क़ाफ़िर सनम निकले

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ‘ग़ालिब’ और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं, कल वो जाता था कि हम निकले

Mirza Ghalib