ग़म-ए-दुनिया से गर पाई भी फ़ुर्सत सर उठाने की
फ़लक का देखना तक़रीब तेरे याद आने की
खुलेगा किस तरह मज़मूँ मेरे मक्तूब का यारब
क़सम खाई है उस काफ़िर ने काग़ज़ के जलाने की
लिपटना परनियाँ में शोला-ए-आतिश का आसाँ है
वले मुश्किल है हिकमत दिल में सोज़-ए-ग़म छुपाने की
उन्हें मंज़ूर अपने ज़ख़्मियों का देख आना था
उठे थे सैर-ए-गुल को देखना शोख़ी बहाने की
हमारी सादगी थी इल्तफ़ात-ए-नाज़ पर मरना
तेरा आना न था ज़ालिम मगर तमहीद जाने की
लक़द-कोब-ए-हवादिस का तहम्मुल कर नहीं सकती
मेरी ताक़त के ज़ामिं थी बुतों के नाज़ उठाने की
कहूँ क्या ख़ूबी-ए-औज़ाग़-ए-इब्ना-ए-ज़माँ “ग़ालिब”
बदी की उसने जिस से हमने की थी बारहा नेकी
Mirza Ghalib