जरा धूप फैली जो चुभती कड़कती
हवा गर्म चलने लगी है ससरती
पिघलती सी देखी
जो उजली ये वादी
परिंदों ने की है
शहर में मुनादी
दरीचे खुले हैं
सवेर-सवेरे
चिनारों पे आये
हैं पत्ते घनेरे
हँसी दूब देखो है कैसे किलकती
ये सूरज जरा-सा
हुआ है घमंडी
कसकती हैं यादें
पहन गर्म बंडी
उठी है तमन्ना
जरा कुनमुनायी
खयालों में आकर
जो तू मुस्कुरायी
ये दूरी हमारी लगे अब सिमटती
बगानों में फैली
जो आमों की गुठली
सँभलते-सँभलते
भी दोपहरी फिसली
दलानों में उड़ती
है मिट्टी सुगंधी
सुबह से थकी है
पड़ी शाम औंधी
Gautam rajrishi