Kahin chhat thi deewar-o-dar the kahin

कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं 
मिला मुझको घर का पता देर से 
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे 
मगर जो दिया वो दिया देर से

हुआ न कोई काम मामूल से 
गुज़ारे शब-ओ-रोज़ कुछ इस तरह 
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर 
कभी घर में सूरज उगा देर से

कभी रुक गये राह में बेसबब 
कभी वक़्त से पहले घिर आई शब 
हुये बंद दरवाज़े खुल खुल के सब 
जहाँ भी गया मैं गया देर से

ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है 
यही है जुदाई यही मेल है 
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक 
बनी वो ख़ामोशी सदा देर से

सजा दिन भी रौशन हुई रात भी 
भरे जाम लहराई बरसात भी 
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी 
जो होना था जल्दी हुआ देर से

भटकती रही यूँ ही हर बंदगी 
मिली न कहीं से कोई रौशनी 
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी 
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से

Nida Fazli

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *