Khankah me sufi muh mein chhupaye baitha hai

खानकाह में सूफी मुँह में छुपाए बैठा है
गालिबन ज़माने से मात खाए बैठा है

कत्ल तो नहीं बदला कत्ल की अदा बदली
तीर की जगह कातिल साज़ उठाए बैठा है

उन के चाहने वाले धूप धूप फिरते हैं
गैर उन के कूचे में साए साए बैठा है

वाह आशिक-ए-नादाँ काएनात ये तेरी
इक शिकस्ता शीशे को दिल बनाए बैठा है

दूर बारिश ऐ गुल-चीं वा है दीदा-ए-नर्गिस
आज हर गुल-ए-रंगीं खार खाए बैठा है

Kaif bhopali

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