सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं

सुदर्शन फ़ाकिर

सामने है जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा ही नहीं उसको ख़ुदा कहते हैं

ज़िन्दगी को भी सिला कहते हैं कहनेवाले
जीनेवाले तो गुनाहों की सज़ा कहते हैं

फ़ासले उम्र के कुछ और बढा़ देती है
जाने क्यूँ लोग उसे फिर भी दवा कहते हैं

चंद मासूम से पत्तों का लहू है “फ़ाकिर”
जिसको महबूब के हाथों की हिना कहते हैं

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हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले

सुदर्शन फ़ाकिर

हम तो यूँ अपनी ज़िन्दगी से मिले
अजनबी जैसे अजनबी से मिले

हर वफ़ा एक जुर्म हो गोया
दोस्त कुछ ऐसी बेरुख़ी से मिले

फूल ही फूल हम ने माँगे थे
दाग़ ही दाग़ ज़िन्दगी से मिले

जिस तरह आप हम से मिलते हैं
आदमी यूँ न आदमी से मिले

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उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं 

सबा अकबराबादी

उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं 
इश्क़ ही इश्क़ की क़ीमत हो ज़रूरी तो नहीं 

एक दिन आप की बरहम-निगही देख चुके 
रोज़ इक ताज़ा क़यामत हो ज़रूरी तो नहीं 

मेरी शम्ओं को हवाओं ने बुझाया होगा 
ये भी उन की ही शरारत हो ज़रूरी तो नहीं 

अहल-ए-दुनिया से मरासिम भी बरतने होंगे 
हर नफ़स सिर्फ़ इबादत हो ज़रूरी तो नहीं 

दोस्ती आप से लाज़िम है मगर इस के लिए 
सारी दुनिया से अदावत हो ज़रूरी तो नहीं 

पुर्सिश-ए-हाल को तुम आओगे उस वक़्त मुझे 
लब हिलाने की भी ताक़त हो ज़रूरी तो नहीं 

सैकड़ों दर हैं ज़माने में गदाई के लिए 
आप ही का दर-ए-दौलत हो ज़रूरी तो नहीं 

बाहमी रब्त में रंजिश भी मज़ा देती है 
बस मोहब्बत ही मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं 

ज़ुल्म के दौर से इकराह-ए-दिली काफ़ी है 
एक ख़ूँ-रेज़ बग़ावत हो ज़रूरी तो नहीं 

एक मिस्रा भी जो ज़िंदा रहे काफ़ी है 'सबा' 
मेरे हर शेर की शोहरत हो ज़रूरी तो नहीं 

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ज़ख़्म जो आप की इनायत है

सुदर्शन फ़ाकिर

ज़ख़्म जो आप की इनायत है इस निशानी को नाम क्या दे हम
प्यार दीवार बन के रह गया है इस कहानी को नाम क्या दे हम

आप इल्ज़ाम धर गये हम पर एक एहसान कर गये हम पर
आप की ये मेहरबानी है मेहरबानी को नाम क्या दे हम

आपको यूँ ही ज़िन्दगी समझा धूप को हमने चाँदनी समझा
भूल ही भूल जिस की आदत है इस जवानी को नाम क्या दे हम

रात सपना बहार का देखा दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा
बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला बेज़ुबानी को नाम क्या दे हम