बिठा के दिल में गिराया गया नज़र से मुझे

गुलज़ार देहलवी

बिठा के दिल में गिराया गया नज़र से मुझे

दिखाया तुरफ़ा-तमाशा बला के घर से मुझे

नज़र झुका के उठाई थी जैसे पहली बार

फिर एक बार तो देखो उसी नज़र से मुझे

हमेशा बच के चला हूँ मैं आम राहों से

हटा सका न कोई मेरी रहगुज़र से मुझे

हयात जिस की अमानत है सौंप दूँ उस को

उतारना है ये क़र्ज़ा भी अपने सर से मुझे

सुबू न जाम न मीना से मय पिला बे-शक

पिलाए जा मिरे साक़ी यूँही नज़र से मुझे

जो बात होती है दिल में वो कह गुज़रता हूँ

नहीं है कोई ग़रज़ अह्ले-ए-ख़ैर-ओ-शर से मुझे

न दैर से न हरम से न मय-कदे से मिला

सुकून-ए-रूह मिला है जो तेरे दर से मुझे

किसी की राह-ए-मोहब्बत में बढ़ता जाता हूँ

न राहज़न से ग़रज़ है न राहबर से मुझे

ज़रा तो सोच हिक़ारत से देखने वाले

ज़माना देख रहा है तिरी नज़र से मुझे

ज़माना मेरी नज़र से तो गिर गया लेकिन

गिरा सका न ज़माना तिरी नज़र से मुझे

ये रंग-ओ-नूर का ‘गुलज़ार’ दहर-ए-फ़ानी है

यही पयाम मिला उम्र-ए-मुख़्तसर से मुझे

गुलज़ार दहलवी

खुशबू जैसे लोग मिले

ख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने में
एक पुराना ख़त खोला अनजाने में

शाम के साए बालिश्तों से नापे हैं
चाँद ने कितनी देर लगा दी आने में

रात गुज़रते शायद थोड़ा वक़्त लगे
धूप उन्डेलो थोड़ी सी पैमाने में

जाने किस का ज़िक्र है इस अफ़्साने में
दर्द मज़े लेता है जो दोहराने में

दिल पर दस्तक देने कौन आ निकला है
किस की आहट सुनता हूँ वीराने में

हम इस मोड़ से उठ कर अगले मोड़ चले
उन को शायद उम्र लगेगी आने में

गुलज़ार

आँखों में जल रहा है प बुझता नहीं धुआँ

गुलजार

आँखों में जल रहा है प बुझता नहीं धुआँ
उठता तो है घटा सा बरसता नहीं धुआँ

पलकों के ढाँपने से भी रुकता नहीं धुआँ
कितनी उँडेलीं आँखें प बुझता नहीं धुआँ

आँखों से आँसुओं के मरासिम पुराने हैं
मेहमाँ ये घर में आएँ तो चुभता नहीं धुआँ

चूल्हे नहीं जलाए कि बस्ती ही जल गई
कुछ रोज़ हो गए हैं अब उठता नहीं धुआँ

काली लकीरें खींच रहा है फ़ज़ाओं में
बौरा गया है मुँह से क्यूँ खुलता नहीं धुआँ

आँखों के पोछने से लगा आग का पता
यूँ चेहरा फेर लेने से छुपता नहीं धुआँ

चिंगारी इक अटक सी गई मेरे सीने में
थोड़ा सा आ के फूँक दो उड़ता नहीं धुआँ

शाम से आँख में नमी सी है

गुलज़ार

शाम से आँख में नमी सी है
आज फिर आप की कमी सी है

दफ़्न कर दो हमें कि साँस आए
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है

कौन पथरा गया है आँखों में
बर्फ़ पलकों पे क्यूँ जमी सी है

वक़्त रहता नहीं कहीं टिक कर
आदत इस की भी आदमी सी है

आइए रास्ते अलग कर लें
ये ज़रूरत भी बाहमी सी है