Roz badhta hoon jahan se aage

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे 
फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ 
बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को 
इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ 
रोज़ बसते हैं कई शहर नये 
रोज़ धरती में समा जाते हैं 
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह 
वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं 

जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत 
न कहीं धूप न साया न सराब 
कितने अरमाँ है किस सहरा में 
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब 
नफ़्ज़ बुझती भी भड़कती भी है 
दिल का मामूल है घबराना भी 
रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा 
इक आदत है जिये जाना भी 

क़ौस एक रंग की होती है तुलू’अ 
एक ही चाल भी पैमाना भी 
गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद 
मुश्किल क्या हो गई मयख़ाने की 
कोई कहता था समंदर हूँ मैं 
और मेरी जेब में क़तरा भी नहीं 
ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ 
अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं 

अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ 
कभी क़ुरान कभी गीता की तरह 
चंद रेखाओं में समाऊँ मैं 
ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह 
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं 
काश रावन ही कोई आ जाता 

Kaifi azmi

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