Saare bhoole bisron ki yaad aati hai

सारे भूले बिसरों की याद आती है
एक ग़ज़ल सब ज़ख्म हरे कर जाती है

पा लेने की ख़्वाहिश से मोहतात रहो
महरूमी की बीमारी लग जाती है

ग़म के पीछे मारे मारे फिरना क्या
ये दौलत तो घर बैठे आ जाती है

दिन के सब हंगामे रखना ज़ेहनों में
रात बहुत सन्नाटे ले कर आती है

दामन तो भर जाते हैं अय्यारी से
दस्तर-ख़्वानों से बरकत उठ जाती है

रात गए तक चलती है टीवी पर फ़िल्म
रोज़ नमाज़-ए-फज्र क़ज़ा हो जाती है

Shakeel zamaali

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