हवा गुज़र गयी पत्ते थे कुछ हिले भी नहीं 

हवा गुज़र गयी पत्ते थे कुछ हिले भी नहीं 
वो मेरे शहर में आये भी और मिले भी नहीं

ये कैसा रिश्ता हुआ इश्क में वफ़ा का भला 
तमाम उम्र में दो चार छ: गिले भी नहीं 

इस उम्र में भी कोई अच्छा लगता है लेकिन
दुआ-सलाम के मासूम सिलसिले भी नहीं 

गुलज़ार

शायद मैं ज़िन्दगी की सहर

सुदर्शन फ़ाकिर

शायद मैं ज़िन्दगी की सहर लेके आ गया
क़ातिल को आज अपने ही घर लेके आ गया

ता-उम्र ढूँढता रहा मंज़िल मैं इश्क़ की
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफ़र लेके आ गया

नश्तर है मेरे हाथ में, कांधों पे मैक़दा
लो मैं इलाज-ए-दर्द-ए-जिगर लेके आ गया

“फ़ाकिर” सनमकदे में न आता मैं लौटकर
इक ज़ख़्म भर गया था इधर लेके आ गया

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उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं 

सबा अकबराबादी

उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं 
इश्क़ ही इश्क़ की क़ीमत हो ज़रूरी तो नहीं 

एक दिन आप की बरहम-निगही देख चुके 
रोज़ इक ताज़ा क़यामत हो ज़रूरी तो नहीं 

मेरी शम्ओं को हवाओं ने बुझाया होगा 
ये भी उन की ही शरारत हो ज़रूरी तो नहीं 

अहल-ए-दुनिया से मरासिम भी बरतने होंगे 
हर नफ़स सिर्फ़ इबादत हो ज़रूरी तो नहीं 

दोस्ती आप से लाज़िम है मगर इस के लिए 
सारी दुनिया से अदावत हो ज़रूरी तो नहीं 

पुर्सिश-ए-हाल को तुम आओगे उस वक़्त मुझे 
लब हिलाने की भी ताक़त हो ज़रूरी तो नहीं 

सैकड़ों दर हैं ज़माने में गदाई के लिए 
आप ही का दर-ए-दौलत हो ज़रूरी तो नहीं 

बाहमी रब्त में रंजिश भी मज़ा देती है 
बस मोहब्बत ही मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं 

ज़ुल्म के दौर से इकराह-ए-दिली काफ़ी है 
एक ख़ूँ-रेज़ बग़ावत हो ज़रूरी तो नहीं 

एक मिस्रा भी जो ज़िंदा रहे काफ़ी है 'सबा' 
मेरे हर शेर की शोहरत हो ज़रूरी तो नहीं 

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चराग़-ओ-आफ़ताब ग़ुम

सुदर्शन फ़ाकिर

चराग़-ओ-आफ़्ताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी
शबाब की नक़ाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

मुझे पिला रहे थे वो कि ख़ुद ही शम्मा बुझ गई
गिलास ग़ुम शराब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

लिखा हुआ था जिस किताब में, कि इश्क़ तो हराम है
हुई वही किताब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी

लबों से लब जो मिल गए, लबों से लब जो सिल गए
सवाल ग़ुम जवाब ग़ुम, बड़ी हसीन रात थी