वारस्ता इससे हैं कि मुहब्बत ही क्यों न हो
कीजे हमारे साथ अदावत ही क्यूं न हो
छोड़ा न मुझ में ज़ु’फ़ ने रंग इख़तिलात का
है दिल पे बार नक़श-ए-मुहबबत ही क्यूं न हो
है मुझ को तुझ से तज़किरा-ए-ग़ैर का गिला
हर-चंद बर-सबील-ए शिकायत ही क्यूं न हो
पैदा हुई है कहते हैं हर दरद की दवा
यूं हो तो चारा-ए ग़म-ए-उलफ़त ही क्यूं न हो
डाला न बेकसी ने किसी से मुआमिला
अपने से खेंचता हूं ख़जालत ही कयूं न हो
है आदमी बजा-ए-ख़ुद इक महशर-ए-ख़याल
हम अंजुमन समझते हैं ख़लवत ही कयूं न हो
हंगामा-ए-ज़बूनी-ए-हिम्मत है इन्फ़िआल
हासिल न कीजे दहर से इबरत ही क्यूं न हो
वा-रसतगी बहाना-ए-बेगानगी नहीं
अपने से कर न ग़ैर से वहशत ही कयूं न हो
मिटता है फ़ौत-ए फ़ुरसत-ए-हस्ती का ग़म कोई
उमर-ए-अज़ीज़ सरफ़-ए-इबादत ही क्यूं न हो
उस फ़ितना-ख़ू के दर से अब उठते नहीं ‘असद’
उस में हमारे सर पे क़यामत ही क्यूं न हो
Mirza Ghalib