Shayad mere badan ki ruswai chahta hai

शायद मेरे बदन की रुसवाई चाहता है
दरवाज़ा मेरे घर का बीनाई चाहता है

औक़ात-ए-ज़ब्त उस को ऐ चश्म-ए-तर बता दे
ये दिल समंदरों की गहराई चाहता है

शहरों में वो घुटन है इस दौर में के इंसाँ
गुमनाम जंगलों की पुरवाई चाहता है

कुछ ज़लज़ले समो कर ज़ंजीर की ख़नक में
इक रक़्स-ए-वालेहाना सौदाई चाहता है

कुछ इस लिए भी अपने चर्चे हैं शहर भर में
इक पारसा हमारी रुसवाई चाहता है

हर शख़्स की जबीं पर करते हैं रक़्स तारे
हर शख़्स ज़िंदगी की रानाई चाहता है

अब छोड़ साथ मेरा ऐ याद-ए-नौ-जवानी
इस उम्र का मुसाफ़िर तंहाई चाहता है

मैं जब ‘क़तील’ अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ
अब मेरा प्यार मुझ से दानाई चाहता है

Qateel shifai

Phool pe dhool babool pe shabnam

फूल पे धूल बबूल पे शबनम देखने वाले देखता जा
अब है यही इंसाफ़ का आलम देखने वाले देखता जा

परवानों की राख उड़ा दी बाद-ए-सहर के झोंकों ने
शम्मा बनी है पैकर-ए-मातम देखने वाले देखता जा

जाम-ब-जाम लगी हैं मोहरें मय-ख़ानों पर पहरे हैं
रोती है बरसात छमा-छम देखने वाले देखता जा

इस नगरी के राज-दुलारे एक तरह कब रहते हैं
ढलते साए बदलते मौसम देखने वाले देखता जा

मसलहतों की धूल जमी है उखड़े उखड़े क़दमों पर
झिजक झिजक कर उड़ते परचम देखने वाले देखता जा

एक पुराना मदफ़न जिस में दफ़्न हैं लाखों उम्मीदें
छलनी छलनी सीना-ए-आदम देखने वाले देखता जा

एक तेरा ही दिल नहीं घायल दर्द के मारे और भी हैं
कुछ अपना कुछ दुनिया का ग़म देखने वाले देखता जा

कम-नज़रों की इस दुनिया में देर भी है अँधेर भी है
पथराया हर दीदा-ए-पुर-नम देखने वाले देखता जा

Qateel shifai

Manzil Jo Maine paai to shashdar bhi main hi tha

मंज़िल जो मैं ने पाई तो शशदर भी मैं ही था
वो इस लिए के राह का पत्थर भी मैं ही था

शक हो चला था मुझ को ख़ुद अपनी ही ज़ात पर
झाँका तो अपने ख़ोल के अंदर भी मैं ही था

होंगे मेरे वजूद के साए अलग अलग
वरना बरून-ए-दर भी पस-ए-दर भी मैं ही था

पूछ उस से जो रवाना हुए काट कर मुझे
राह-ए-वफ़ा में शाख़-ए-सनोबर भी मैं ही था

आसूदा जिस क़दर वो हुआ मुझ को ओढ़ कर
कल रात उस के जिस्म की चादर भी मैं ही था

मुझ को डरा रही थी ज़माने की हम-सरी
देखा तो अपने क़द के बराबर भी मैं ही था

आईना देखने पे जो नादिम हुआ ‘क़तील’
मुल्क-ए-ज़मीर का वो सिकंदर भी मैं ही था

Qateel shifai

Kya jaane kis khumaar mein kis Josh mein gira

क्या जाने किस ख़ुमार में किस जोश में गिरा
वो फल शजर से जो मेरी आग़ोश में गिरा

कुछ दाएरा से बन गए साथ-ए-ख़याल पर
जब कोई फूल साग़र-ए-मय-नोश में गिरा

बाक़ी रही न फिर वो सुनहरी लकीर भी
तारा जो टूट कर शब-ए-ख़ामोश में गिरा

उड़ता रहा तो चाँद से यारा न था मेरा
घायल हुआ तो वादी-ए-गुल-पोश में गिरा

बे-आबरू न थी कोई लग़्ज़िश मेरी ‘क़तील’
मैं जब गिरा जहाँ भी गिरा होश में गिरा

Qateel shifai