Wo adaye dilbari ho ki nawae aashikana

वो अदाए-दिलबरी हो कि नवाए-आशिक़ाना।
जो दिलों को फ़तह कर ले, वही फ़ातहेज़माना॥

कभी हुस्न की तबीयत न बदल सका ज़माना।
वही नाज़े-बेनियाज़ी वही शाने-ख़ुसरवाना॥

मैं हूँ उस मुक़ाम पर अब कि फ़िराक़ोवस्ल कैसे?
मेरा इश्क़ भी कहानी, तेरा हुस्न भी फ़साना॥

तेरे इश्क़ की करामत यह अगर नहीं तो क्या है।
कभी बेअदब न गुज़रा, मेरे पास से ज़माना॥

मेरे हमसफ़ीर बुलबुल! मेरा-तेरा साथ ही क्या?
मैं ज़मीरे-दश्तोदरिया तू असीरे-आशियाना॥

तुझे ऐ ‘जिगर’! हुआ क्या कि बहुत दिनों से प्यारे।
न बयाने-इश्को़-मस्ती न हदीसे-दिलबराना॥

Jigar moradabadi

Zarron se baate karte hai diwarodar se ham

ज़र्रों से बातें करते हैं दीवारोदर से हम।
मायूस किस क़दर है, तेरी रहगुज़र से हम॥

कोई हसीं हसीं ही ठहरता नहीं ‘जिगर’।
बाज़ आये इस बुलन्दिये-ज़ौक़े-नज़र से हम॥

इतनी-सी बात पर है बस इक जंगेज़रगरी।
पहले उधर से बढ़ते हैं वो या इधर से हम॥

Jigar moradabadi

Aa ki tujh bin is tarah e dost ghabrata hoo main

आ कि तुझ बिन इस तरह ऐ दोस्त! घबराता हूँ मैं।
जैसे हर शै में किसी शै की कमी पाता हूँ मैं॥

कू-ए-जानाँ की हवा तक से भी थर्राता हूँ मैं।
क्या करूँ बेअख़्तयाराना चला जाता हूँ मैं॥

मेरी हस्ती शौक़-ए-पैहम, मेरी फ़ितरत इज़्तराब।
कोई मंज़िल हो मगर गुज़रा चला जाता हूँ मैं॥

Jigar moradabadi

Agar na zohra jabino ke darmiyan guzre

अगर न ज़ोहरा जबीनों के दरमियाँ गुज़रे 
तो फिर ये कैसे कटे ज़िन्दगी कहाँ गुज़रे 

जो तेरे आरिज़-ओ-गेसू के दरमियाँ गुज़रे 
कभी-कभी तो वो लम्हे बला-ए-जाँ गुज़रे 

मुझे ये वहम रहा मुद्दतों के जुर्रत-ए-शौक़ 
कहीं ना ख़ातिर-ए-मासूम पर गिराँ गुज़रे 

हर इक मुक़ाम-ए-मोहब्बत बहुत ही दिल-कश था 
मगर हम अहल-ए-मोहब्बत कशाँ-कशाँ गुज़रे 

जुनूँ के सख़्त मराहिल भी तेरी याद के साथ 
हसीं-हसीं नज़र आये जवाँ-जवाँ गुज़रे 

मेरी नज़र से तेरी जुस्तजू के सदक़े में 
ये इक जहाँ ही नहीं सैकड़ों जहाँ गुज़रे 

हजूम-ए-जल्वा में परवाज़-ए-शौक़ क्या कहना 
के जैसे रूह सितारों के दरमियाँ गुज़रे 

ख़ता मु’आफ़ ज़माने से बदगुमाँ होकर 
तेरी वफ़ा पे भी क्या क्या हमें गुमाँ गुज़रे 

ख़ुलूस जिस में हो शामिल वो दौर-ए-इश्क़-ओ-हवस 
नारैगाँ कभी गुज़रा न रैगाँ गुज़रे 

इसी को कहते हैं जन्नत इसी को दोज़ख़ भी 
वो ज़िन्दगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे 

बहुत हसीन सही सुहबतें गुलों की मगर 
वो ज़िन्दगी है जो काँटों के दरमियाँ गुज़रे 

मुझे था शिक्वा-ए-हिज्राँ कि ये हुआ महसूस 
मेरे क़रीब से होकर वो नागहाँ गुज़रे 

बहुत हसीन मनाज़िर भी हुस्न-ए-फ़ितरत के 
न जाने आज तबीयत पे क्यों गिराँ गुज़रे 

मेरा तो फ़र्ज़ चमन बंदी-ए-जहाँ है फ़क़त 
मेरी बला से बहार आये या ख़िज़ाँ गुज़रे 

कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को ख़बर न हुई 
राह-ए-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे 

भरी बहार में ताराजी-ए-चमन मत पूछ 
ख़ुदा करे न फिर आँखों से वो समाँ गुज़रे 

कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा 
मु’आमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे 

कभी-कभी तो इसी एक मुश्त-ए-ख़ाक के गिर्द 
तवाफ़ करते हुये हफ़्त आस्माँ गुज़रे 

बहुत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद “जिगर” 
वो हादसात-ए-मोहब्बत जो नागहाँ गुज़रे

Jigar moradabadi