ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती;
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता;
तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते;
अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता।
ये मज़ा था दिल्लगी का कि बराबर आग लगती;
न तुम्हें क़रार होता न हमें क़रार होता;
तेरे वादे पर सितमगर अभी और सब्र करते;
अगर अपनी जिन्दगी का हमें ऐतबार होता।
आँखों को इंतज़ार की भट्टी पे रख दिया
मैंने दिये को आँधी की मर्ज़ी पे रख दिया
एक तू मिल जाती, इतना काफ़ी था,
सारी दुनियाँ के तलबगार नहीं थे हम..!!
ज़ब्त से काम लिया दिल ने तो क्या फ़ख़्र करूँ
इसमें क्या इश्क की इज़्ज़त थी कि रुसवा न हुआ