Shayad mere badan ki ruswai chahta hai

शायद मेरे बदन की रुसवाई चाहता है
दरवाज़ा मेरे घर का बीनाई चाहता है

औक़ात-ए-ज़ब्त उस को ऐ चश्म-ए-तर बता दे
ये दिल समंदरों की गहराई चाहता है

शहरों में वो घुटन है इस दौर में के इंसाँ
गुमनाम जंगलों की पुरवाई चाहता है

कुछ ज़लज़ले समो कर ज़ंजीर की ख़नक में
इक रक़्स-ए-वालेहाना सौदाई चाहता है

कुछ इस लिए भी अपने चर्चे हैं शहर भर में
इक पारसा हमारी रुसवाई चाहता है

हर शख़्स की जबीं पर करते हैं रक़्स तारे
हर शख़्स ज़िंदगी की रानाई चाहता है

अब छोड़ साथ मेरा ऐ याद-ए-नौ-जवानी
इस उम्र का मुसाफ़िर तंहाई चाहता है

मैं जब ‘क़तील’ अपना सब कुछ लुटा चुका हूँ
अब मेरा प्यार मुझ से दानाई चाहता है

Qateel shifai

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