रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है

रात चुपचाप दबे पाँव चली जाती है
रात ख़ामोश है रोती नहीं हँसती भी नहीं
कांच का नीला सा गुम्बद है, उड़ा जाता है
ख़ाली-ख़ाली कोई बजरा सा बहा जाता है
चाँद की किरणों में वो रोज़ सा रेशम भी नहीं
चाँद की चिकनी डली है कि घुली जाती है
और सन्नाटों की इक धूल सी उड़ी जाती है
काश इक बार कभी नींद से उठकर तुम भी
हिज्र की रातों में ये देखो तो क्या होता है

गुलज़ार

चौदहवीं रात के इस चाँद तले

चौदहवीं रात के इस चाँद तले
सुरमई रात में साहिल के क़रीब
दूधिया जोड़े में आ जाए जो तू
ईसा के हाथ से गिर जाए सलीब
बुद्ध का ध्यान चटख जाए ,कसम से
तुझ को बर्दाश्त न कर पाए खुदा भी

दूधिया जोड़े में आ जाए जो तू
चौदहवीं रात के इस चाँद तले !

गुलज़ार

दर्द हल्का है साँस भारी है

दर्द हल्का है साँस भारी है 
जिए जाने की रस्म जारी है

आप के बाद हर घड़ी हम ने
आप के साथ ही गुज़ारी है

रात को चाँदनी तो ओढ़ा दो
दिन की चादर अभी उतारी है

शाख़ पर कोई क़हक़हा तो खिले
कैसी चुप सी चमन पे तारी है

कल का हर वाक़िआ तुम्हारा था
आज की दास्ताँ हमारी है

क्या बताएं कि जां गयी कैसे
फिर से दोहराएं वो घड़ी कैसे

किसने रास्ते मे चांद रखा था
मुझको ठोकर लगी कैसे

वक़्त पे पांव कब रखा हमने
ज़िंदगी मुंह के बल गिरी कैसे

आंख तो भर आयी थी पानी से
तेरी तस्वीर जल गयी कैसे

हम तो अब याद भी नहीं करते
आप को हिचकी लग गई कैसे

गुलज़ार