ज़ख़्म जो आप की इनायत है

सुदर्शन फ़ाकिर

ज़ख़्म जो आप की इनायत है इस निशानी को नाम क्या दे हम
प्यार दीवार बन के रह गया है इस कहानी को नाम क्या दे हम

आप इल्ज़ाम धर गये हम पर एक एहसान कर गये हम पर
आप की ये मेहरबानी है मेहरबानी को नाम क्या दे हम

आपको यूँ ही ज़िन्दगी समझा धूप को हमने चाँदनी समझा
भूल ही भूल जिस की आदत है इस जवानी को नाम क्या दे हम

रात सपना बहार का देखा दिन हुआ तो ग़ुबार सा देखा
बेवफ़ा वक़्त बेज़ुबाँ निकला बेज़ुबानी को नाम क्या दे हम

ग़म बढ़े आते हैं

सुदर्शन फ़ाकिर

ग़म बढे़ आते हैं क़ातिल की निगाहों की तरह
तुम छिपा लो मुझे, ऐ दोस्त, गुनाहों की तरह

अपनी नज़रों में गुनाहगार न होते, क्यों कर
दिल ही दुश्मन हैं मुख़ालिफ़ के गवाहों की तरह

हर तरफ़ ज़ीस्त की राहों में कड़ी धूप है दोस्त
बस तेरी याद के साये हैं पनाहों की तरह

जिनके ख़ातिर कभी इल्ज़ाम उठाये, “फ़ाकिर”
वो भी पेश आये हैं इंसाफ़ के शाहों की तरह

Ilzaam

ये हुस्न तेरा ये इश्क़ मेरा 
रंगीन तो है बदनाम सही
मुझ पर तो कई इल्ज़ाम लगे 
तुझ पर भी कोई इल्ज़ाम सही